शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

प्रतिक्रिया जरुर लिखने का कष्ट करे

प्रिय साथियों
 किसी भी साहित्य या पोस्ट को पढ़ना बहुत ही बढियां कला है  और पढ़ कर उस पर कोई प्रतिक्रिया न देना उतना ही ख़राब है  आप सभी साथियों एवं अच्छे पाठकों से निवेदन है की किसी के भी पोस्ट को पढ़ कर  अपनी प्रतिक्रिया जरुर लिखने का कष्ट करे  चाहे वह नकारात्मक हो या सकारात्मक . आपकी प्रतिक्रिया से किसी भी लेखक को असीम उर्जा मिलाती है. 
 धन्यवाद 

ये दुनिया का है इकलौता देश महान.. जहाँ नहीं मिलता मातृभाषा को सम्मान.

अभी कुछ दिनों पहले की बात है.. 
शनिवार का दिन था..

दफ्तर के कार्यकलाप से छूट्टी थी,
आज पीनी मुझे साहित्य की घुट्टी थी..
आलमारी से पद्म विभूषण निर्मल वर्मा की,
"जलती झाड़ी" पुस्तक निकाल लाया ,
साहित्य सुधा के अपार सागर में..
मैने दो-एक डुबकियाँ था लगाया... 
चंद पृष्ठों के बाद..
मेरा दूरभाष घनघनाया,
मेरे वरिष्ठ अधिकारी ने,
मेरे साहित्य रस पान पे था ब्रेक लगाया .....
साहब ने मुझे,
संस्था की मुख्य शाखा पर था बुलवाया ...
साथ में पूरे साल का,
लेखा जोखा भी मंगवाया...
मैं थोडा सहमा,थोडा घबराया,
जल्दी ही संयत होते हुए,
विमानतल की ओर कदम बढाया..
रास्ते में मुझे,
सफ़र के लम्बे होने का ध्यान आया.
अफ़सोस हुआ "जलती झाड़ी" भी जल्दबाजी में
मैं घर ही भूल आया
तभी जहन में ये ख्याल आया,
मैं हिंदुस्तान की राजधानी में हूँ श्रीमान..
विमानस्थल पर खरीद लूँगा..
निर्मल की "जलती झाड़ी" या प्रेमचन्द्र की गोदान....
ये सोच कर मैं मन ही मन मुस्कराया..
अब जा कर मेरी साहित्यिक बेचैनी को,
थोडा चैन आया ..
विमानतल पर पंहुचा ,
कुछ खुबसूरत चेहरों ने..
थोडा मुस्कराकर,कुछ स्वागत शब्द सुनाकर ,
अन्दर जाने का रास्ता बतलाया ...
इन सबके बिच मेरा मस्तिष्क ढूंढ़ रहा था,
निर्मल जी की "जलती झाडी" का साया...
अन्दर गया,पास में था एक पुस्तक क्रय केंद्र,
वहां पहुंचा तो अपने आप को,
पुस्तकों से घिरा पाया...
पर ये क्या???
कुछ के नाम शायद पढ़ सकता था..
कुछ के नाम भी नहीं पढ़ पाया.....
ये सब विदेशी अंग्रेजी किताबें थी..
जिनमें थी निहित
शेक्सपीयर और केट्स की माया...
हिम्मत की थोडा और आगे बढ़ा,
अंग्रेजी स्टाइल में था एक देसी सेल्समैन खड़ा
मैं भी गया और अंग्रेजी झाड़ी...
बोला "कैन आई गेट निर्मल वर्मा की जलती झाडी"
सेल्समैन ने सर उठाया..
कुछ इस तरह से मुझे देखा जैसे..
मैकाले के इस देसी भारत में..
ये परदेशी गाँधी कहाँ से आया????

थोडा मुस्कराकर उसनें फ़रमाया ,
सर"जलती झाडी' पे डालो पानी..
पढना शुरू करो अब,
विलियम वर्ड्सवर्थ की कविता रूमानी..
मैं बोला भईया मैं हूँ ..
गांव वाला सीधा साधा हिन्दुस्तानी,
अगर नहीं है निर्मल जी की "जलती झाडी"
तो दे दो मुझको,
मुंशी प्रेमचंद्र की कोई कहानी..

अब सेल्समैन का पारा थोडा ऊपर चढ़ा
उसने कहा अगर प्रेमचंद्र को पढना है.
तो एअरपोर्ट पर तू क्यों है खड़ा???
जा किसी आदिवासी स्टेशन पर,
वहीँ मिलेगा तुझे ये हिंदी का कूड़ा...
खैर,मैं जैसे तैसे पुस्तक क्रय केंद्र से बाहर आया,
सोचा,ये दुनिया का है इकलौता देश महान..
जहाँ नहीं मिलता मातृभाषा को सम्मान..
कभी सेकुलरिज्म की चक्की में,
पिसतें है हिन्दू..
तो कभी हिंदी का होता है..
हिंदूस्थान में ही अपमान...

अब मुझे आगे था जाना..
सामने खड़ा था वायुयान
अनायास ही याद आये,
राजीव दीक्षित जी और उनका नारा
" बोलो भैया दे दे तान,हिंदी हिन्दू हिंदूस्थान"....

आइये हम सभी सोचें..
हिंदी और हिन्दू तो अब तक,
झेल रहें हैं मैकाले की गुलामी..
क्या अगले गुलामी क्रम में होगा
हम सब का हिंदूस्थान ????

चलिये जाते जाते एक बार फिर
कम से कम दोहरा लें .
" बोलो भैया दे दे तान,हिंदी हिन्दू हिंदूस्थान" ......

“मेरा भारत महान”

गुरुवार, 18 अगस्त 2011

तूं जहाँ भी रहे सलामत रहे

तूं जहाँ भी रहे सलामत रहे
तेरे जीवन में खुशियाँ ही खुशियाँ रहे
दूर जा के भी तूं हमेशा पास रहे
तेरी यादें हमेशा ही ताजा रहे
तू जहा भी चले फूल हो राहों में
हर कदम तेरी मंजिल मुबारक रहे
हर चमन के फूल आपसे खिलती रहे
ये महक यूं ही महकती रहे
तूं जो चाहे ओ तुझको सदा ही मिले
कोई गम तो तुझे कभी हो न सके
आपके लिए  मेरी यही है कामना
आपका जीवन सदा ही प्रफ्फुलित रहे
------------------------------------------------------जय सिंह  

रविवार, 14 अगस्त 2011

क्या यही कहता है पंद्रह अगस्त

क्या यही कहता है पंद्रह अगस्त
की लूटो, खाओ रहो मस्त |
धर्म के नाम पे कट्टरता,
और जाति के नाम पे उंच-नीच
क्या पलती रहे  यूं ही नफ़रत
रह जाए न जग में प्रेम प्रीति 
भोली जनता को कर गुमराह
उनको लुटने में  रहते है ब्यस्त,
क्या यही  कहता है पंद्रह अगस्त | 
सोचो तो तिरंगे  झंडे को
जिसे सादर नमन किया करते है
इक रोज  झुका कर जिसे शीश 
फिर नेता उसको भुला दिया करते है,
अपने ही ऐश  का ध्यान दिया
अपने ही  रंग में रहे मस्त,
क्या  यही कहता है पंद्रह अगस्त|
है न्याय के  घर में लूट मची,
छीना- झपटी में भीड़ जमी ,
 पाखंड ,झूठ ,अन्याय , अनीति से
मानवता हुई शाप ग्रस्त ,
क्या यही कहता है पंद्रह अगस्त|
पंद्रह अगस्त  तो कहता है
हम एक बने हम नेक बने,
जब  बन  न सके भारतीय तो, 
 क्या हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख बने,  
ऐसी बेकार की बातों पे
रोता रहा पंद्रह अगस्त 
क्या  यही कहता है पंद्रह अगस्त|
 
-------------------------------------------- जय सिंह 

शुक्रवार, 12 अगस्त 2011

दिल को हँसा दीजिये

दिल को हँसा दीजिये 
 यूँ न हमको सजा दीजिये
 कल  मिले ना मिले क्या खबर
   आज ही दिल से दिल को मिला लीजिये 
जख्म सुखा नहीं इल्तजा है मेरी 
  पाव रख कर ना दिल पे चला कीजिये 
 पास  आये नहीं हम खफा तो नहीं 
    दूर ही से ही मगर हौसला दीजिये
  हम  रहे ना रहे इस जहाँ में सही 
   फिर मिले यह  खुदा से दुआ कीजिये
 आप ही से मिली ये जिंदगी मुझे 
     मेरे मरने की यूँ ना दुआ कीजिये
आपका ------------------जय सिंह 

बुधवार, 6 जुलाई 2011

मदद किसकी करूँ

समझ आती नहीं की मदद किसकी करूँ
अपने टूटे हुए दिल के दर्द को कैसे भरूँ
जरुरतमंदो की मदद किया तो 
झूठे जरूरतमंद मिलने लगे 
बिधवा की मदद किया तो, जमाना कह पड़ा की
प्यार का फँसाना दे रहा है 
अनाथ बेसहारा लड़की की मदद किया तो 
लोग बोल पड़े की प्यार कर रहा है 
अपाहिजों की मदद किया तो 
लोग कहने लगे की 
बिकलांग योजनाओं का 
लाभ उठाना चाहता है 
भिखारियों की मदद किया तो
सब भिखारी बन गए 
दबे लोगों की मदद किया तो, लोग ताना देने लगे की 
नेता बनाने का शौक हो गया है 
गरीबों की मदद किया तो लोग कह पड़े की
मजबूरी का फायदा उठाना चाहता है
अनपढ़ों की मदद किया तो लोग कह पड़े की
दिमागी रूप  से पागल  हो गया है
अग्नि पीड़ितों की मदद पर
लोग झोपड़ियाँ जलाने लगे
रिश्तेदारों की मदद जी जान से किया तो
चरित्र पर ही लांछन  लग गया 
उस कलंक को हमेशा के लिए मिटाना चाहा तो 
मेरा जीवन ही तमाशा बन गया
हार थक कर विचार किया हमने की
मदद करना ही बेकार है
क्योंकि हमेशा पात्र ब्यक्ति वंचित रह जाता है
जो वास्तव में मदद पाने का हक़दार है
और समाज में सबसे ज्यादा परेशान है


आपका ------------------
                                     जय सिंह           

बुधवार, 29 जून 2011

अकेली लड़की

 माँ के आंसू बाप की पीड़ा,
भैया जी का उतरा मुख 
एक  अकेली लड़की रामा, उसके इतने सारे दुःख
घर से बाहर जब भी निकले,
ब्यंग बाण के चुभते तीर 
सिटी मारे कोई रांझा, बढ़कर कहता आ जा हीर 
सोने जैसी भरी जवानी,
आओ भोगे तन का सुख 
एक अकेली लड़की  रामा , उसके इतने  सारे दुःख 
रिश्तेदार बने जो अपने
क्या उनका कर ले विश्वास
कहाँ बैठ कब बाजी खेले , कब ले फेटे मिल कर तास 
औरों की छोड़ो कब अपना 
खुद ही हो ले खून बिमुख 
एक अकेली लड़की रामा , उसके इतने सारे दुःख 
है अभाव की बेटी कैसे 
पीले होंगे उसके हाथ 
लाज बचे कैसे पगड़ी की , किस दर रगड़े बापू माथ 
शोषण  के कोल्हू में सारी
देह गयी है जैसे चुक 
एक अकेली लड़की रामा , उसके इतने सारे दुःख
 

------जय सिंह

शुक्रवार, 27 मई 2011

रे मन !

रे मन !
तुम मेरे लिए कितना
बहुत कुछ सह जाती हो 
अपने घर में अपमान सहकर भी 
आंसूं की बूंद निगल जाती हो 
हंसती रहती हो सदा सबके सामने 
मुझसे छुप के आंसूं बहाती  हो 
न करे अन्याय कोई मुझ पर 
शायद ! इसी डर से तुम हर 
अन्याय को चुपचाप सह जाती हो 
हर पल पर गुजरता होगा 
पल पल की कोई एहसास 
हर पल की गम पर गिरता होगा 
झूठी कलंक का भार
तुम तो हर पल पत्थर तले
दिल को भी नहीं दिखाती हो 
दुःख की घडी में छोड़ देता है 
यदि कोई तुम्हारा प्रेमी 
तो भी मुस्कुराहट का मरहम लगा लेती हो   
रस्सी पर चलने वाले 
किसी नट की तरह  हर पल तुम वही हो 
जो प्यार से बनी-ढली,वेदना से सींची
हर पल! तुम न अमीर हो न गरीब 
हर पल तुम बस
शायद ! मेरे जिश्म की एक जान हो 
केवल हर पल मेरी हो 
रे मन!


----------- जय सिंह

कुछ तो बोलो

 सदियों तक मौन रह कर 
ढ़ेरों अन्याय सह कर
लाश बने जीते रहे हो 
जहर ही पीते रहे हो
कहा तक दबते रहोगे  
और कितना अब सहते रहोगे 
बन्धनों को तोड़ दो 
भाग्य को कर दो किनारे 
बढ़ो कर्मों के सहारे 
दासता के बंध खोलो 
चुप रहो मत कुछ तो बोलो !!

आपका----
                      जय सिंह 


क्यों की बकरे का बलिदान किया जाता है
लेकिन सिंह का बलिदान करने का साहस
कोई नहीं करता ! इस लिए हम सब 
सिंह बने और सिंह की तरह गर्जना करे !
                    ----------------------------     डा ०  भीम राव अम्बेडकर 

बहरी सरकार

                                            बहरी ये सरकार बहुत है



महँगाई की मार बहुत है 
जीना अब दुश्वार बहुत है 
रोटी- रोटी मत चिल्लाओ
बहरी ये सरकार बहुत है
कश्ती अपनी डूब न जाये 
टूटी ये पतवार बहुत है
सच बोलोगे सजा मिलेगी 
लोकतंत्र बीमार बहुत है
कविता से जग उजला होगा 
कलम में   'जय'  धार बहुत है




जय  सिंह