शुक्रवार, 27 मई 2011

रे मन !

रे मन !
तुम मेरे लिए कितना
बहुत कुछ सह जाती हो 
अपने घर में अपमान सहकर भी 
आंसूं की बूंद निगल जाती हो 
हंसती रहती हो सदा सबके सामने 
मुझसे छुप के आंसूं बहाती  हो 
न करे अन्याय कोई मुझ पर 
शायद ! इसी डर से तुम हर 
अन्याय को चुपचाप सह जाती हो 
हर पल पर गुजरता होगा 
पल पल की कोई एहसास 
हर पल की गम पर गिरता होगा 
झूठी कलंक का भार
तुम तो हर पल पत्थर तले
दिल को भी नहीं दिखाती हो 
दुःख की घडी में छोड़ देता है 
यदि कोई तुम्हारा प्रेमी 
तो भी मुस्कुराहट का मरहम लगा लेती हो   
रस्सी पर चलने वाले 
किसी नट की तरह  हर पल तुम वही हो 
जो प्यार से बनी-ढली,वेदना से सींची
हर पल! तुम न अमीर हो न गरीब 
हर पल तुम बस
शायद ! मेरे जिश्म की एक जान हो 
केवल हर पल मेरी हो 
रे मन!


----------- जय सिंह

1 टिप्पणी: