मां के गर्भ में
वह आंखे बन्द किये सोर्इ थी
लेकिन निर्दोष आंखों के बीच
कुछ स्वप्न था प्रतिबिमिबत
स्वपिनल संसार का अलिंगन करने का
क्या नहीं
लोरियां, किलकारियां
और चार पावों पर भागती हुर्इ परछाइयां
सब कुछ पर ....................... आह!
पीड़ा से कातर यह शब्द कैसा ?
डाक्टर थाल में परोसकर लाया
पिता आतुर था
अपनी सन्तान के अनितम दर्शन का
फटा सिर, छितराये गुदे,
अभिन्न देंह के भिन्न अंग
तथाकथित होठ नाजुक सी
कुछ सवाल था उन पर रक्त रंजित
हे मेरे जन्मदाता मेरे निर्माता
मैं इस संसार में आना चाहती थी
मां की थपकियां महसुस करना चाहती थी
इस सुन्दर संसार को
प्यारी नन्ही आखों से देखना चाहती थी
लेकिन हे मेरे जन्मदाता
यह क्या कर डाला
जन्म लेने से पहले ही
मेरा वध कर डाला।
जय सिंह