शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

मां के गर्भ में



मां के गर्भ में
वह आंखे बन्द किये सोर्इ थी
लेकिन निर्दोष आंखों के बीच
कुछ स्वप्न था प्रतिबिमिबत
स्वपिनल संसार का अलिंगन करने का
क्या नहीं
लोरियां, किलकारियां
और चार पावों पर भागती हुर्इ परछाइयां
सब कुछ पर ....................... आह!
पीड़ा से कातर यह शब्द कैसा ?
डाक्टर थाल में परोसकर लाया
पिता आतुर था
अपनी सन्तान के अनितम दर्शन का
फटा सिर, छितराये गुदे,
अभिन्न देंह के भिन्न अंग
तथाकथित होठ नाजुक सी
कुछ सवाल था उन पर रक्त रंजित
हे मेरे जन्मदाता मेरे निर्माता
मैं इस संसार में आना चाहती थी
मां की थपकियां महसुस करना चाहती थी
इस सुन्दर संसार को
प्यारी नन्ही आखों से देखना चाहती थी
लेकिन हे मेरे जन्मदाता
यह क्या कर डाला
जन्म लेने से पहले ही
मेरा वध कर डाला।

                         जय सिंह

बाल दिवस :: चाचा नेहरू के देश के बच्चे


वो सुबह ही जिंदगी को शाम  करने जा रहा है
वो अपने ख्वाब सब नीलाम करने जा रहा है
वो जिसको इन दिनों स्कूल जाना चाहिए था
वो बच्चा दस बरस का काम करने जा रहा है।

बाल दिवस की आहटें सब जगह सुन रहा हूँ 
ये पंकितयां अपने मन मे सुबह शाम गुन रहा हूँ 
स्कूल जाने की उम्र में स्कूल का रिक्शा चलाते बच्चे
होटलों पर जूठे कप,प्लेट साफ करते बच्चे
सिनेमा हालों के बाहर मुंगफली बेचते बच्चे
फूटपाथों पर साहबों के जूते चमकाते बच्चे
गैरेजों में मोटर से कार साफ करते बच्चे
झाडू पोछा करते बच्चे, बचपन से अपरिचित बच्चे
समय से पहले बुढे होते बच्चे
बिना दवा अस्पताल में दम तोडते बीमार बच्चे
सपने देखकर लहुलुहान होते बच्चे
पतंग उडाने की जगह बनाते बच्चे
गुब्बारे खेलते नही बेचते बच्चे
बच्चे बच्चे और बच्चे
चाचा नेहरू के देश के बच्चे
बडे साहब के बंगले पर पहरा देते बच्चे
अनजाने में गलती पर मालिक का तमाचा खाते बच्चे
थोडी पगार कटवाते बच्चे
वे सभी बच्चे जिन्हे कहा जाता है-
इंसाफ की डगर पे बच्चे दिखाओ चल के
ये देश है तुम्हारा नेता तुम्ही हो कल के

कुपोशण के शिकार बच्चे
स्वास्थ संगठनों से लाचार बच्चे
अशिक्षा के अंधेरे मे रोशनी ढूढते बच्चे
गुमसुम सा पूछ रहा है किसका बाल दिवस आया है
उन बच्चों का जो एन आर आर्इ हो चूके है
या फिर उनका जिन्होने वातानुकूलित कक्षा से निकलकर
सूरज को कभी देखा नही
हवा की ताजी थपकियां कभी महसुस नही की
ओस में कभी भीगें नही
वो धुल जो माथे का चंदन भी हो सकता था
डसे केवल धुल ही समझा
फूटपाथ पर नाक बहाता बच्चा रो रहा था
बाल दिवस के सही मायने समझने की कोशिश में
अधेड होता जा रहा था।

................. जय सिंह 

बुधवार, 26 अक्टूबर 2011

दिवाली में पटाखे सावधानी से जलाये और इको फ्रेंडली दिवाली मनाये

दीपावली का महत्व सिर्फ बाहरी दुनिया के अंधकार को मिटाना नहीं है ! बल्कि यह अपने भीतर के अंधकार को दूर करने का भी त्यौहार है ! जाहिर है की  आन्तरिक अँधेरा दिया और बाती से नहीं ! ज्ञान की रोशनी से दूर होगा ! यह सुखद  है की देश में शिक्षा का प्रसार तेजी से हो रहा है लेकिन अभी भी इस दिशा   में मीलों  का सफर बाकि  है ! तमाम आकडे इस बात के गवाह है की सरकारी कोशिशे बेकार शाबित हो रही है ! ऐसे में अज़ीम प्रेम जी की  तरह ही दीपावली मानाने का संकल्प  लेना होगा ! याद कीजिये उन्होंने दो अरब डालर इस देश के गरीब और अशिक्षित बच्चो  के तकदीर सवारने के दान किया है ! हमे  दीपावली यह भी सीख देती है कि हमे दीपक जैसा उदार   होना चाहिए ! वह अपने रोशनी से दुसरो का मार्ग अलोकिक करता है !इस लिए संकल्प का भी पर्व  है !
                                                                                                                     
                                                                                                                  जय सिंह 

शनिवार, 22 अक्टूबर 2011

नींद कैसे उसे आती होगी


सर्द रात को बिस्तर में जब
पहले की तरह मुझको खोजती होगी
भर के तकिया अपनी बांहों में 
आंसू धीरे से पोछती होगी 

अपने परछार्इ से चौकाने वाली
कैसे समांए बुझाती होगी
मेंरी बांहों के सिहराने के बिना 
नींद कैसे उसे आती होगी

उसे हर रात मुझसे मिलने को 
कितने अरमान सुलगती होगी
मेरी हसीन यादों के सहारे 
               उसने कितने दिन-रात गुजारी होगी

वहां से मेरे आने का गुमां होने पर 
                   हर रोज वो रोती होगी
                        मुझको जब नींद नही आती है यहां तो 
                        कैसे मानूं कि वो भी वहां सोती होगी।


                          जय सिंह

वे हादसे


कभी-कभी जब उदासी बहुत थक जाती है
तो वह मेरे पास बैठती है
वह उदास-उदास बातें करती है
मैं थका-थका हुंकारा देता हूं
नफरत में भी उतनी ही ताकत होती है
जितनी की प्यार में
मैं हूं तो कह देता हूं
पर मेरा दिल यह बात नहीं मानता
प्यार की शिददत का
नफरत की ताकत से क्या मुकाबला
प्यार आस ही आस होती है
और नफरत बेउम्मीदी
प्यार के गम में भी एक सुख
नफरत के सुख में भी कांटे ही कांटे
उदासी कुछ सोच कर बोलती है
हर ख्याल हर उसुल अपने ही पैमाने पर 
तौलना कहां तक ठीक है
मैं हंस देता हूं
कर्इ बार मेरी जिन्दगी के साथ भी
ऐसे हादसे हुए है कि
उनकी खबर घर घर हुर्इ
वे हादसे खुशी के थे
फिर भी मैंने सिर ऊंचा नही किया
अपनी किस्मत पर मुझे पुरा भरोसा था
और फिर ऐसे हादसे हुए
जो सिर्फ मुझे मालूम है
उनका खौफनाक जिक्र कभी
मेरी जुबान ने किसी से नहीं किया
सुनाने की हिम्मत की किसी को
बोलने के लिए शब्द ही थे
हादसे खुशी के हो या गम के बस हो जाते है
उदासी थकी-थकी उठकर चल दी
यहां मेरी सांस घुट रही है
मेरा दिल सोचता रहा
दु: सबके अपने-अपने होते है
पर लगते कितने एक से है।

                        जय सिंह

शुक्रवार, 21 अक्टूबर 2011

क्यों बिछड़ गये वो


एक इन्सान टूटा बिखरा सा
टूटे हुए रिश्तों को जोड़ता बेचारा सा
कैसे टूट गये रिश्ते उनसे
उसी को खोजता है
क्यों बिछड़ गये वो हमसे 
अपने को ही कोसता है
जो देखकर कभी वे
पास आते मुस्कुराते थे
चाहते हुए भी
हर बात को मुझे बताते थे
अब उन्ही के बारे में सोचता है
अपनी ही किस्मत पे हंसता है
पराये तो कब का छोड़ दिये थे
ये अब तक तो याद नहीं
अब अपने भी साथ छोड़ दिये
इन्ही शहरों में कहीं
दु: उनको तो नहीं हुआ होगा
पर मुझे तो हुआ ही होगा
जी रहा है किस तरह टूट-टूट कर
क्या अब भी कोर्इ साथ नही होगा
आरोप की वजहें होती है कर्इ
पर यह आरोप तो एक फंसाना है
हर कोर्इ अब लगता हमको हमीं से बेगाना है
यूं घिरा रहता था जिनसे वो दिन-रात
मालूम था मुझे छोड़ देगें
वो इस तरह उसका साथ
जिस मोड़ पर देखता है उनको
उसकी जिन्दगी शरमा रही है
जो छोड़ दिये उन्हे भुल जाओ
नये रिश्ते बनाना सिखा रही है
जिसको छोड़ दिये
उनके आने का कोर्इ आस नहीं 
जिसके लिए इतना कुछ किया
अब मेरे साथ नहीं।।

 जय सिंह

शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

प्रतिक्रिया जरुर लिखने का कष्ट करे

प्रिय साथियों
 किसी भी साहित्य या पोस्ट को पढ़ना बहुत ही बढियां कला है  और पढ़ कर उस पर कोई प्रतिक्रिया न देना उतना ही ख़राब है  आप सभी साथियों एवं अच्छे पाठकों से निवेदन है की किसी के भी पोस्ट को पढ़ कर  अपनी प्रतिक्रिया जरुर लिखने का कष्ट करे  चाहे वह नकारात्मक हो या सकारात्मक . आपकी प्रतिक्रिया से किसी भी लेखक को असीम उर्जा मिलाती है. 
 धन्यवाद 

ये दुनिया का है इकलौता देश महान.. जहाँ नहीं मिलता मातृभाषा को सम्मान.

अभी कुछ दिनों पहले की बात है.. 
शनिवार का दिन था..

दफ्तर के कार्यकलाप से छूट्टी थी,
आज पीनी मुझे साहित्य की घुट्टी थी..
आलमारी से पद्म विभूषण निर्मल वर्मा की,
"जलती झाड़ी" पुस्तक निकाल लाया ,
साहित्य सुधा के अपार सागर में..
मैने दो-एक डुबकियाँ था लगाया... 
चंद पृष्ठों के बाद..
मेरा दूरभाष घनघनाया,
मेरे वरिष्ठ अधिकारी ने,
मेरे साहित्य रस पान पे था ब्रेक लगाया .....
साहब ने मुझे,
संस्था की मुख्य शाखा पर था बुलवाया ...
साथ में पूरे साल का,
लेखा जोखा भी मंगवाया...
मैं थोडा सहमा,थोडा घबराया,
जल्दी ही संयत होते हुए,
विमानतल की ओर कदम बढाया..
रास्ते में मुझे,
सफ़र के लम्बे होने का ध्यान आया.
अफ़सोस हुआ "जलती झाड़ी" भी जल्दबाजी में
मैं घर ही भूल आया
तभी जहन में ये ख्याल आया,
मैं हिंदुस्तान की राजधानी में हूँ श्रीमान..
विमानस्थल पर खरीद लूँगा..
निर्मल की "जलती झाड़ी" या प्रेमचन्द्र की गोदान....
ये सोच कर मैं मन ही मन मुस्कराया..
अब जा कर मेरी साहित्यिक बेचैनी को,
थोडा चैन आया ..
विमानतल पर पंहुचा ,
कुछ खुबसूरत चेहरों ने..
थोडा मुस्कराकर,कुछ स्वागत शब्द सुनाकर ,
अन्दर जाने का रास्ता बतलाया ...
इन सबके बिच मेरा मस्तिष्क ढूंढ़ रहा था,
निर्मल जी की "जलती झाडी" का साया...
अन्दर गया,पास में था एक पुस्तक क्रय केंद्र,
वहां पहुंचा तो अपने आप को,
पुस्तकों से घिरा पाया...
पर ये क्या???
कुछ के नाम शायद पढ़ सकता था..
कुछ के नाम भी नहीं पढ़ पाया.....
ये सब विदेशी अंग्रेजी किताबें थी..
जिनमें थी निहित
शेक्सपीयर और केट्स की माया...
हिम्मत की थोडा और आगे बढ़ा,
अंग्रेजी स्टाइल में था एक देसी सेल्समैन खड़ा
मैं भी गया और अंग्रेजी झाड़ी...
बोला "कैन आई गेट निर्मल वर्मा की जलती झाडी"
सेल्समैन ने सर उठाया..
कुछ इस तरह से मुझे देखा जैसे..
मैकाले के इस देसी भारत में..
ये परदेशी गाँधी कहाँ से आया????

थोडा मुस्कराकर उसनें फ़रमाया ,
सर"जलती झाडी' पे डालो पानी..
पढना शुरू करो अब,
विलियम वर्ड्सवर्थ की कविता रूमानी..
मैं बोला भईया मैं हूँ ..
गांव वाला सीधा साधा हिन्दुस्तानी,
अगर नहीं है निर्मल जी की "जलती झाडी"
तो दे दो मुझको,
मुंशी प्रेमचंद्र की कोई कहानी..

अब सेल्समैन का पारा थोडा ऊपर चढ़ा
उसने कहा अगर प्रेमचंद्र को पढना है.
तो एअरपोर्ट पर तू क्यों है खड़ा???
जा किसी आदिवासी स्टेशन पर,
वहीँ मिलेगा तुझे ये हिंदी का कूड़ा...
खैर,मैं जैसे तैसे पुस्तक क्रय केंद्र से बाहर आया,
सोचा,ये दुनिया का है इकलौता देश महान..
जहाँ नहीं मिलता मातृभाषा को सम्मान..
कभी सेकुलरिज्म की चक्की में,
पिसतें है हिन्दू..
तो कभी हिंदी का होता है..
हिंदूस्थान में ही अपमान...

अब मुझे आगे था जाना..
सामने खड़ा था वायुयान
अनायास ही याद आये,
राजीव दीक्षित जी और उनका नारा
" बोलो भैया दे दे तान,हिंदी हिन्दू हिंदूस्थान"....

आइये हम सभी सोचें..
हिंदी और हिन्दू तो अब तक,
झेल रहें हैं मैकाले की गुलामी..
क्या अगले गुलामी क्रम में होगा
हम सब का हिंदूस्थान ????

चलिये जाते जाते एक बार फिर
कम से कम दोहरा लें .
" बोलो भैया दे दे तान,हिंदी हिन्दू हिंदूस्थान" ......

“मेरा भारत महान”