बेटी थी चुपचाप जल गई,
गौ होती कोहराम मचाती.
जगह जगह दंगे फ़ैलाती,
जगह जगह उत्पात मचाती.
कितनों की वर्दी छिनती और
कितनों पै रासुका लगाती?
डीएम,सीएम, मंत्री, संत्री,
डीजीपी तक गस्त कराती.
गोरों से हो मुक्त मगन थे,
गैरों ने हमको भरमाया.
झूंठ और उन्माद सहारे,
सत्ता पर अधिकार जमाया.
उनके बेटी नहीं अत: वे,
दर्द बेटियों का क्या जानें.
सत्ता के खातिर आये हैं,
मर्यादा को क्यों पहचानें?
दलित वर्ग की जगह कहीं
सभ्रांत वर्ग की बेटी होती.
और भूल से भी दलितों ने
इसी तरह से रौंदी होती.
तो शासन हाथरस प्रशासन
उल्टी गंगा नहीं बहाते.
परिजन को बंधन में करके
"जय" रात्रि में ना उसे जलाते.
विनम्र श्रद्धांजलि
जय सिंह